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सुलग के दिल में बुझे जाते हैं / विजय किशोर मानव
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सुलग के दिल में बुझे जाते हैं
कैसे मंज़र ये रोज़ आते हैं
अहम् भी क्या है किसी धारा पर,
एक दीवार खड़ी पाते हैं
हँस के डसने के इतने क़िस्से हैं,
अब तो फूलों से ख़ौफ़ खाते हैं
छोड़कर ख़ुद को अलविदा करते,
हाथ अपना ही हम हिलाते हैं
रोज़ कंधों पे दिन की लाश लिए,
थोड़ा चलते हैं, लड़खड़ाते हैं
भागते हैं शहर में, ख़ुद से दूर
किसकी रफ़्तार से टकराते हैं
ये भला क्या हुआ है लोगों को
होंठ पर रख के दुम, हिलाते हैं