भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुस्त दिनों का ख़ानाबदोश कारवाँ / दिलीप चित्रे / तुषार धवल
Kavita Kosh से
सुस्त दिनों का
ख़ानाबदोश कारवाँ
सरकता है अनन्त के मरुस्थल में
जैसे हमारे दुखों का बोझ उठाए
स्वप्न के ऊँट चले जाते हैं
अनिर्मित पिरामिडों की डरावनी छायाओं के पार
मृत्यु की मारीचिका की ओर ....
आकाशगंगा के धूसर प्रवाह की सतह पर
तैरते
मेरे घनघोर पागलपन के असम्बद्ध प्रतिबिम्बों को
जिन आँखों ने चुराया था देश काल के परे
वे आँखें अब बर्फ़-सी जम गई हैं
वे आँखें अब बर्फ़-सी जम गई हैं
और तुम भी, मेरी प्रेरणा —
जो विश्व के अनन्त लेंस से
उनके उस पार तक देखती थीं —
तुम भी जा रही हो
मुझे छोड़ कर
बिखरते शब्दों के घने होते अन्धेरों में ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद — तुषार धवल