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सुस्त दिनों का खानाबदोश कारवाँ / दिलीप चित्रे
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सुस्त दिनों का ख़ानाबदोश कारवाँ
सरकता है अनन्त के मरुस्थल में
जैसे हमारे दुखों का बोझ उठाए स्वप्न के ऊँट चले जाते हैं
अनिर्मित पिरामिडों की डरावनी छायाओं के पार
मृत्यु की मारिचिका की ओर....
... आकाशगंगा के धूसर प्रवाह की सतह पर
तैरते
मेरे घनघोर पागलपन के असम्बद्ध प्रतिबिम्बों को
जिन आँखों ने चुराया था देश काल के परे
वे आँखे अब बर्फ़-सी जम गई हैं
वे आँखें अब बर्फ़-सी जम गई हैं और तुम भी, मेरी प्रेरणा....
जो विश्व के अनन्त लेंस से उनके उस पार तक देखती थीं...
तुम भी जा रही हो
मुझे छोड़ कर
बिखरते शब्दों के घने होते अन्धेरों में ।