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सुहागन / सीमा 'असीम' सक्सेना

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उस दिन जब नहा धोकर निकली
बिंदी कहीं गिर गयी थी
छूट गया था माथे का सिन्दूर
बाल धोये जो थे
ड्रेसिंग टेबल पर
शीशे में निहारते ही हाथ बढाकर
सिन्दूर की डिब्बी उठा ली
भर लूं अपनी मांग में
लगा लूं बिंदी माथे पर
तभी कुछ ख्याल आया
छोड़ देती हूँ
कुछ पल साँस लेने को
माथे और मांग को
जी लूंगी वही कुवारेपन के पलों को
जब न कोई चिता न फिकर
सिर्फ खुशियाँ प्यार आजादी
मात्र एक चुटकी सिन्दूर भरकर
जिन्दगी भर की
चिंताओं मान्यताओं परम्पराओ में
जकड दिया समाज दुनियादारी का भय दिखाकर
पावों में चुभते हुए बिछुए
हाथों में कंगन
पावों में पायल डाल समेत लिया
घर की चौखट के भीतर
बाल सूखाने को ज्यों ही बाहर निकली
सासु मन ने देख
वहीँ से आवाज लगा दी
क्यों री बहु बिंदी न बची तेरे पास
जो सुनी मांग घूमे है
यह सुन दौड़ पड़ी
बिंदी लगाने को मांग भरने को
चूड़ियाँ पहनने को
एक आवाज ने कुछ पल की खुशियों को
न जीने दिया
अब तो यही है मेरी ख़ुशी
मांग भरा सिन्दूर
बड़ी सी माथे पर सजती बिंदी
हाथों में भरी भरी चूड़ियाँ
पाव में पायल और बिछुए
एक सुहागन की ख़ुशी इसमें ही है
और दुःख वे कहाँ दीखते है
कभी किसी को नज़र ही कब आते है!!