सुहाग का हर काम सात बार / भावना मिश्र
कितने बरसों से हर बरस
जेठ की अमावस को
कच्चे सूत में लगाकर
प्रेम की हल्दी
बाँध आती हूँ बरगद पर
कितने फेरे लेती हूँ बरगद के
कुछ नहीं रहता याद
गर फ़ोन पर दोहराई कोई गिनती
ज़ेहन में आ गई, तो भली
नहीं तो आठ बरस पहले वाली
वही गिनती
जो माँ ने कराई थी याद
तमाम नसीहतों के साथ,
कि.. सुहाग का हर काम सात बार.
गौर को सुहाग देना पाँच बार
और लेना सात बार
जब सुहाग लो तो सिन्दरौटे से लगा हो आँचल
माँग भरी हो आख़िरी छोर तक
और कलाई भर हों चौबन्दी चूड़ियाँ
सारे सलीके कहे पर ये न कहा माँ ने
कि आँचल के कोर में बँधी इच्छाओं
को कब कह डालना है मूक बरगद से
जो झुका जाता है सुहागिनों की
मनौतियों से,
पति की लम्बी उम्र,
बेहतर नौकरी, सुख समृद्धि
बाल-बच्चे, सात जन्मों का साथ
...... और अपने लिए?
अपने लिए कुछ नहीं, बस उस कोर में
फिर बाँध लाती हैं दो चार नयी इच्छाएँ
घर आती हैं और सहेज के रख देती हैं
आँचल की कोर से निकला सामान
अलमारी के लॉकर में
अगले जेठ की प्रतीक्षा को....