सुहेल हाशमी के लिए / कांतिमोहन 'सोज़'
(यह ग़ज़ल सुहेल हाशमी के लिए)
मयख़ानेे का हूँ मैं भी मिनजुमलए-ख़ासाना<ref>जिगर मुरादाबादी से माज़रत के साथ</ref>।
ऐ साक़िया मस्ताना भर दे मेरा पैमाना॥
सौ बार ज़माने से तज़्लील<ref>अपमान</ref> सही लेकिन
एक बार ज़माने को मैंने नहीं गरदाना<ref>महत्व देना</ref>।
कुछ बात है जो चलकर आया हूँ यहाँ वरना
मैं जाम जहाँ रख दूँ बन जाता है मयख़ाना।
यारों का ये दावा है कुछ दाल में काला है
उस पैमांशिकन<ref>जाम का दुश्मन</ref> का था अन्दाज़ रफ़ीक़ाना।
तुमने भी नहीं पी है ऐ शेख़ चलो माना
कोई तो सबब है जो मुझको नहीं पहचाना।
हमने तो यही समझा हमने तो यही जाना
गर दिल में ख़ुशी हो तो बस जाता है वीराना।
मुश्किल है बड़ा मुश्किल ऐ सोज़ कहीं जाना
चल पड़ती है सरगोशी<ref>कानाफूसी</ref> दीवाना है दीवाना॥
22.03.2017