भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुॾिके ते चित सन्दनि चुरी पिया / एम. कमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुॾिके ते चित सन्दनि चुरी पिया।
संगे दिल हा, मगर झुरी पिया॥

दिल विसारणु थे जिनि खे चाहियो।
सार थी साह ॾे सुरी पिया॥

मां त दुश्मनु हुउसि हुननि जो।
मुंहिंजे गुल ते हू किअं झुरी पिया!

लूणु यादुनि जो ॿुरिकियुइ छो?
अध-छुटल फट वरी कुरी पिया॥

दोस्त सभु शेर हुआ मिटीअ जा।
वक़्त जो मींहुँ पियो, भुरी पिया॥