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सूखा अकाल और बच्ची / सैयद शहरोज़ क़मर

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अब आज
वर्षा होते ही
याद आता है सैलाब
जो आँखों में उमड़ आया था
गुड्डे-गुड़ियों को घरौन्दे में भी
नहिम रख पाई
अम्मा के कहने पर कि दिल्ली में
सब कुछ मिल जाएगा

कोंपल-सी नन्ही-नन्ही हथेलियों में
कहाँ समा पाता है आकाश
और धरती में दरारें पड़ चुकी थीं

गरजता होगा बादल ज़रूर गाँव में भी
धुलती जाती है टीस
गुड्डे-गुड़ियों का ब्याह न
कर पाने की
लौटते ही जिसे अंजाम देना है
मालूम है जगह जहाँ अम्मा
बड़ी-बड़ी रंग-बिरंगी
चिन्दिया छुपाकर रखती है

निर्माणाधीन, फ़्लाई ओवर से
रिसती बून्दें याददाश्त की
सहलाती हैं
झोंपड़ी के उस छेद से
चाँद-तारों से बतियाते तो
उसे नींद आती है

छोटी-छोटी आँखों में
बड़ा-बड़ा बुल्बुला
फूटने लगता है।

19.08.1997