भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूखा / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
जीवन ऐसे उठा
जैसे उठता है झाग का पहाड़
पूरा समेटूँ तो भी एक पेड़ हरियाली का सामान नहीं
जिन वृक्षों ने भोर दिया, साँझ दिया, दुपहरी को ओट दिया
उसे भी नहीं दे सकूँ चार टहनी जल
तो बेहतर है मिट जाना
मगर मिटना भी हवाओं की सन्धियों के हवाले
मैं एक सरकार चुन नहीं पाता
तुम मृत्यु चुनने की बात करते हो !