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सूखा / मनोज कुमार झा
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जीवन ऐसे उठा
जैसे उठता है झाग का पहाड़
पूरा समेटूँ तो भी एक पेड़ हरियाली का सामान नहीं
जिन वृक्षों ने भोर दिया, साँझ दिया, दुपहरी को ओट दिया
उसे भी नहीं दे सकूँ चार टहनी जल
तो बेहतर है मिट जाना
मगर मिटना भी हवाओं की सन्धियों के हवाले
मैं एक सरकार चुन नहीं पाता
तुम मृत्यु चुनने की बात करते हो !