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सूखी नदी-सा / रमेश चंद्र पंत

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पुल हमें
था जोड़ता जो ढह गया !

बात थी
कुछ भी नहीं
थे स्वार्थ अंधे
व्यग्र थे उद्धत बहुत
हो उठे कंधे

एक सूनापन
है मन में, गड़ गया !

थे ग़लत
कोई नहीं
पर, कौन सुनता
बर्छियाँ ताने सभी थे
कौन झुकता

मन कहीं
सूखी नदी-सा हो गया !