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सूखी नहीं / मालती शर्मा
Kavita Kosh से
आकाश
अब हमारी संभावनाओं और कल्पनाओं से
दूर... दूर... चला गया है
हमारे सिरों पर
अब कहीं कोई छत नहीं है
छोटी और छोटी और छोटी
जिन सात कोठरियों के भीतर
हमने जो सुरक्षित समझा था
अपनापे का सुआ
दैत्य को उनकी चाबी मिल गई है
परंपरा से प्रवाहित
तृप्तिदायक नदियों का पानी
सूख गया है
जो बची हैं
उनका पानी ज़हरीला है
कछुए की तरह अंग समेटना
और डबरों में घुसना बेकार है
यह फैली हुई बालू
सूखी गर्म ही सही
इसी में ठोकर मार कर ही हमें
अपने लिए नई नदी खोदनी होगी
आकाश
अब हमारी संभावनाओं और कल्पनाओं से
दूर... दूर... चला गया है!