भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूखी हरियाली / विनीता परमार
Kavita Kosh से
गहरी नींद से उठकर
गहरा हरा रंग डाला
तो ये ज़ख्म भी हरे हो गये|
अब कुछ हरा- भरा नही रहा
बुलबुले सी जिन्द्गी से
जाने कब हरियाली निकल गई
इसका पता ही ना चला
हरी काइ के उपर आत्मा फिसलती रही
हरे दूब का मरहम भी
ना ये घाव भर पाया
अब ना कोई मानस दिखता है जो
गहरे रंग को और चटक बना दे
इस सूखी हरियाली में स्फुरन ला दे