सूखे खेत से, भूखे पेट से / हरिवंश प्रभात
सूखे खेत से, भूखे पेट से
दुःख की गठरी खोल रहा हूँ,
लालकिले से तुम बोलो,
मैं पलामू किले से बोल रहा हूँ।
अब मेरे अन्तर सरिता का
जल ज्वाला बन धधक रहा
सहने की सीमा छूटी अब
क्रोध अनल बन भड़क रहा,
बरसों से जो पड़ी हुई है
अपनी लाठी टटोल रहा हूँ।
केवल नाम स्वदेशी का पर
लाभ विदेशों को देते हो
बदतर हालत देश की कर
उद्योग सभी बंद कर देते हो,
साक्षी है इतिहास हमारा
सैनिक मैं अनमोल रहा हूँ।
हमने ही आज़ादी ली है
हमने भी खायी गोली है
आधी सदी तो बीत गई
पर अपनी खाली झोली है,
सबकी मुट्ठी तनी हुई है
अपनी गरदन तोल रहा हूँ।
मंत्री रूस, अमेरिका जाये
या लंदन की सैर करे
ज़िंदा हैं किस हाल में हम
कौन हमारी खैर करे,
कैसा सर्वेक्षण तेरा
अभाव में खुद को झोल रहा हूँ।
माँग रहा हूँ अब तक का
हिसाब तुझे देना होगा
क्या अगली फिर अर्द्धशती तक
जुल्म यही पहना होगा,
दरक जाये दीवार दिल्ली की
ऐसा प्रचंड भूडोल रहा हूँ।
कपड़ा फटता सी भी लेते
हृदय फटा अब कौन सिये
श्रम से सधा हुआ जीवन
हम लौह पुरुष सा सदा जिये,
उफन रहे भावों में अब
संघर्ष की भाषा घोल रहा हूँ।