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सूखे ज़ज्बात / प्रदीप शुक्ल
Kavita Kosh से
मौन हुए कुम्हलाये
पुरईन के पात
टूट टूट बिखर रहा
कोई जलजात
बादलों को घेर घेर
ले गईं हवायें
ताल की मछलियाँ सब
सहमी घबरायें
उभर रही यादों में
बगुलों की घात
उग आयी अँखुओं में
ढेर सी निराशा
बूँदों की परियों ने
दी नहीं दिलासा
कोख में ही कोंपल को
लगते आघात
पीठ किये सूरज को
सूर्यमुखी बैठी
नवजात पत्ती भी
सूख सूख ऐंठी
सूख रहीं इच्छाएँ
सूखे ज़ज्बात