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सूख गई जो यहाँ कभी थी एक नदी / ध्रुव शुक्ल
Kavita Kosh से
एक वृक्ष था कभी यहाँ जो सूख गया
बरन-बरन के पंछी उस पर बसते थे
भेद-भव से भरी हुई इस बस्ती में
आपस में विश्वास नहीं करता कोई
सूख गई जो यहाँ कभी थी एक नदी
नौकाएँ चलतीं सब पार उतरते थे
मरे हुए पानी में डूबी आँखों से
बाट जोहते रहते हैं बरसात की
घनी-घनी अमराई भी तो सूख गई
ताल यहाँ थे कई कुओं में भी जल था
देते रहते अपना जल वे नदिया को
गागर सूख गई सागर है बहुत दूर।