सूख गयी है झील रसवन्ती: दो / नंद चतुर्वेदी
वे बड़े लोग हैं झील पर घूमने वाले
तलदार जूते पहने
बड़े घर की बहुएं अपने अधेड़ पतियों की
रस-केलि के लिए स्वस्थ होतीं तेज चाल चितवन वाली
तुम आई हो सूखी झील देखने भुवनेश्वरी ?
अब जो अप्रासंगिक हो गयी है
शायद तुम भी इन झीलों पर शिशिर की अलस धूप
बसंत की रस-डूबी संध्यायें याद करने आई हो
देखो कितनी सीढ़ियाँ उतर गया है पानी
हो ही गया है यहाँ सब कुछ अप्रासंगिक
जितनी जल्दी भूल सको रस-गंधो ऋतु-पुष्पों के
नाम भूल जाना
छोटी-छोटी पगडंडियों पर बुलडोजर आयेंगे
झील तट के कंकाल पेड़ों पर
पछतावा करती बैठी होंगी चिड़ियायें
स्त्रियाँ खिन्न मन घाटों से लौट रही होंगी
मलिन वस्त्रों की पोटली लिए
आगे देखने वाले ‘भद्रजन’
झील की मिट्टी बेचने आयेंगे
आयेंगे उनके देशी-विदेश परिजन
शोकाकुल झील तट वासियों को धीरज देने
सुना है यहाँ मोहनदास करमचंद गाँधी की
प्रार्थना सभा होगी
आयेंगी सुब्बालक्ष्मी मीरां का पद गाने
.......हरी तुम हरो जन की पीर
प्रार्थना सभा के बाद मैं ही रहूँ शायद
मोती मगरी पर बैठा
सूखती फतहसागर झील का सूर्यास्त देखने।