सूख चली थी बड़ी झील / प्रेमशंकर शुक्ल
हर बरस की तरह
इस बरस भी चल रही थी ज़िन्दगी
सिवा इसके कि जितना सूख गई थी बड़ी झील
उतनी ही सूख गई थी शहर की सुन्दरता
जैसे-तैसे पीने को पानी मिल ही रहा था शहर को
पर पानी की रंगत से शहर दूर था
शहर में कोई मेहमान आता था तो अब
दिखाने के लिए नहीं था कुछ ख़ास
क्योंकि बड़ी झील सूख चली थी
चूँकि झील सूख चली थी
इसलिए हवा बिना नहाए ही
दौड़ती थी शहर में इधर-उधर
सुबह का चेहरा रूखा-रूखा लगने लगा था
दोपहर को दबाए थी गहरी तपिश
और शाम उदास रहने लगी थी
झील सूख चली थी
और झील में जो थोड़ा पानी शेष था
वह कीचड़ में लिथड़-लिथड़ कर दिन-रात छटपटाता था
ऐसे में झील को देखकर
दिन की बोलती बन्द थी
और रात की भी थी वाकाहरन
इतना चुप रहने लगे थे झील के घाट
कि वहाँ बोलने में काँपता था अपना-मन