सूझ बूझ / हरिऔध
उलझनों को बढ़े बखेड़ों को।
सैकड़ों टालटूल कर टालें।
बात जो भेद डाल दे उस को।
जो सकें डाल पेट में डालें।
तो बखेड़े करें बहुत से क्यों।
जो कहे बात, बात हो पूरी।
काम हो कान के उखेड़े जो।
जो घुसेड़ें न पेट में छूरी।
तो न तकरार के लिए ललकें।
जो बला प्यार से टले टालें।
जो चले काम पेट में पैठे।
तो न तलवार पेट में डालें।
दाँत तो तोड़ किस लिए देवें।
जो दबायें न दुख रही दाढ़ें।
काढ़ काँटा न जो सकें दिल का।
तो किसी की न आँख हम काढ़ें।
भागने में अगर भलाई है।
क्यों भला जी न छोड़ कर भागूँ।
माँगने से अगर मिले हम को।
क्यों न जी की अमान तो माँगूँ।
तो चलें चाल किस लिए गहरी।
बात देवें सँभाल जो लटके।
तो पटकने चलें न सिर अपना।
काम चल जाय पाँव जो पटके।
आप अपने लिए बला न बनें।
जो न सिर पर पड़ी बला टालें।
लाग से लोग जल रहे हैं तो।
पाँव अपना न आग में डालें।