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सूट-बूट को नायक झुग्गियाँ समझती हैं / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

सूट-बूट को नायक झुग्गियाँ समझती हैं।
चीथड़ों को कचरे सा कोठियाँ समझती हैं।

आरियों के दाँतों को पल में तोड़ देता है,
पत्थरों की कोमलता छेनियाँ समझती हैं।

है लिबास उजला पर दूध ने दही बनकर,
घी कहाँ छुपाया है मथनियाँ समझती हैं।

सर्दियों की ख़ातिर ये गुनगुना तमाशा भर,
धूप जानलेवा है गर्मियाँ समझती हैं।

कोठियों के भीतर तक ये पहुँच न पायें पर,
है कहाँ छुपी शक्कर चींटियाँ समझती हैं।