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सूनापन / नरेन्द्र शर्मा

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मेरे जीवन का सूनापन
किसी तरह भी कम न हुआ।
मैं न कहूँगा, मुझे किसी दिन
मरु में मृगजल-भ्रम न हुआ।

सपने का धन बन कर, मेरे
जीवन में मधुऋतु भी आई।
हुई पल्लवित मृदुल कल्पना,
बौराई मन की अमराई।
मेरे प्राणों के पिक का स्वर,
स्वर से पर पंचम न हुआ।

रही पूर्णता की अभिलाषा,
आशा कोई हुई न पूरी।
वह प्रवृत्ति हो या निवृत्ति हो,
रही चित्त की वृत्ति अधूरी।
मंत्रप्राप्त दृष्टा न बना मैं,
जन्मजात अक्षम न हुआ।

यह न हुआ, मैं आकांक्षा के
पंख जला लूँ बन संपाती।
सत्य नहीं संकल्प, अनिश्चय
संशय है मेरे संघाती।
जंग-लगी जंजीरें तोडूँ,
इतना भी उद्यम न हुआ।

क्षमतावान द्विजन्मा हूँ मैं
फिर भी पड़ा रहा अलसाया।
मन के शशि, आत्मा के रवि पर
रही रात-दिन धूमिल छाया।
कुंडलिनी जग उठे लपट बन,
उत्कट यह उपक्रम न हुआ।

रहा काठ का चम्मच, जिसने
स्वाद सूप का कभी न जाना।
मूढ़ावस्था में बीता है-
यह मेरा जीवन मनमाना।
आवर्तन-प्रत्यावर्तन-क्रम,
पर कोई भी सम न हुआ।

अहंकार का शिखर खोखला,
ममता की खंडिता सुमिरिनी;
दुविधा की घाटी में बहती
अधोगामिनी मुखर शिखरिणी;
खलभल करती क्षुद्र नदी का
क्यों सागर-संगम न हुआ।

टूटी नहीं अनृत की झिल्ली,
रिक्त पात्र फूटा न अकृत का।
बना न बोध सत्य का साधक,
हुआ न मन अनुयायी ऋत का।
विश्वरूप को आत्मदान कर,
यह मेरा मैं हम न हुआ।

गायत्री-गायक के बल पर
मैं त्रिशंकु-पथ पर न चलूँगा।
बीजवंत फल-सा असफल में
नए कल्प के लिए गलूँगा।
किसी जन्म में तो होगा ही,
अब तक जो विक्रम न हुआ।