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सूना कुछ भी अच्छा नहीं लगता / प्रज्ञा रावत
Kavita Kosh से
उसे सूना-सूना-सा कुछ भी
अच्छा नहीं लगता
वो घर में और आसपास रह रही
सारी चीज़ों के संगीत को
बजाते रहना चाहती है
जैसे कि उसे अच्छा लगता है
सुबह-सुबह
ठण्डे पड़े चूल्हों का जलना
धुओं का अपने
हमसायों से मिलना
गुनगुने चौके में उबलती
दाल और
खिलखिलाती रोटी का स्वर
धीमी-धीमी आँच में पकती
खारे और मीठे रिश्तों को
बाँधती आपसी नोंक-झोंक
रसोइयाँ रीत रही हैं
घर सोने लगे हैं
बाज़ार जगमगा रहे हैं
घर के सुख-चैन के कोने
बाज़ार की पागल कर देने वाली
चकाचौंध में खो रहे हैं
खो रही है रसोई की महक
ये आखि़री-आखि़री साँस लेती
ठण्डी पड़ती रसोइयाँ हैं
जहाँ लगता है अब कुछ नहीं तड़केगा
कुछ नहीं तड़केगा तो
घर कैसे महकेगा।