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सूनी दिखती सड़कें, चुपचाप हवाएं बहती हैं / सांवर दइया
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सूनी दिखती सड़कें, चुपचाप हवाएं बहती है।
कौन समझेगा आज ख़ामोशी भी कुछ कहती है।
मायूस न हो यहां आग की उम्मीद रखने वाले!
लाख चढ़े राख, अंगारों में आंच मगर रहती है।
टूट जाते हैं सदियों से अडिग खड़े किनारे भी,
तूफान के आगोश में पल लहरें जब बहती हैं!
पांवो तले रौंदने वालों से है गुजारिश यही,
देखो, धरती भी सहने की हद तक ही सहती हैं!
यह हवा, यह आकाश कैद न करो सियासत वालो!
परवाज भरती चिड़िया न जाने कब से कहती है।