सूरज-था कभी! / तरुण
अब कहाँ है सूरज में वह तमतमाहट;
सूरज-था कभी सूरज, तेज-पुंज!
है अब तो वह तेजोहत;-जूड़ी ताप-ग्रस्त
दुबका पड़ा रहता है लुंज-पुंज!
तापसी सत्ताओं के नंगे नाच देखता रहता है वह रोज
रहता है घुन्ना बना (खो चुका है अपना सब ओज)
चारों ओर चर्चा है-क्या यह सही है?-
कि उसकी मुट्ठी चुपचाप गरम कर दी गई है!
हो गया है षड्यन्त्रों, कुचक्रणाओं का वह पक्षधर!
कौन देगा अब अर्ध्य-दान, नयन में प्रेमाश्रु भर!
चाँद तो था ही सदा का दस नम्बरी-
कैबरों का एजेन्ट! करता स्मगलरी!
पर, जीवन-ज्योति का प्रचण्ड अनादि óोत, चिर ज्वलन्त
दब्बू, निर्वीर्य होकर चुपचाप बैठ जावे-हा हन्त!
सच्चा हो तो अधर्म, अन्याय की सृष्टि को भून दे!
अन्धकार बढ़ता जा रहा है-क्यों न रे
एक बार, हड़कम्प पैदा करता हुआ-
गरजता है वह बेशरम-
‘सत्यमेव जयते नानृतम्।’
1978