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सूरज अपने पाँव चले / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
चाँद चढ़े
तारों के रथ पर
सूरज अपने पाँव चले
नदी तुम्हारी
तुम जानो
हम लेकर अपनी नाव चले
आकाश देखता रह जाये
बादल आवारा छा जाये
बूँदों की सीढ़ी
जोड़े तो
सीधे धरती पर
आ जाये
उद्यान विहँसकर
क्या पाये
खुशबू तितली है
उड़ जाये
गलियों-गलियों में इतराये
सबकी साँसों में बस जाये
गठरी होती तो रख देते
चुपचाप कहीं भी चल देते
लेकिन इस मायानगरी में
मुट्ठी में बंद स्वभाव चले
तन्हा -तन्हा वन अकुलाये
तुम जुड़ो तो
जीवन बन जाये
मैं दे दूँ अपनी हरियाली
तुम दे दो अपनी चहल-पहल
यदि मिट्टी को
आकार मिले तो
बन जाये वो शीशमहल
शबनम में मोती छवि देखे
पानी में दर्पण मुख धो ले
नवप्रकाश का दीप जले
जब जगमग-जगमग गाँव चले