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सूरज का गोला / भवानीप्रसाद मिश्र

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सूरज का गोला,

इसके पहले ही कि निकलता,

चुपके से बोला,हमसे - तुमसे इससे - उससे

कितनी चीजों से,

चिडियों से पत्तों से ,

फूलो - फल से, बीजों से-

” मेरे साथ - साथ सब निकलो

घने अंधेरे से

कब जागोगे,अगर न जागे , मेरे टेरे से ?”

आगे बढकर आसमान ने

अपना पट खोला ,

इसके पहले ही कि निकलता

सूरज का गोला .

फिर तो जाने कितनी बातें हुईं,

कौन गिन सके इतनी बातें हुईं ,

पंछी चहके कलियां चटकीं ,

डाल - डाल चमगादड लटकीं

गांव - गली में शोर मच गया ,

जंगल - जंगल मोर नच गया .

जितनी फैली खुशियां ,

उससे किरनें ज्यादा फैलीं,

ज्यादा रंग घोला .

और उभर कर ऊपर आया

सूरज का गोला ,

सबने उसकी आगवानी में

अपना पर खोला .