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सूरज की कविताएँ (सुख) / सोमदत्त
Kavita Kosh से
झनझना रहा होगा
कातिक की आई-गई बौराई बौछार की चपलता देख
धरती से उठी बीज की भारवान पलकों का
सपना भिद गया होगा
उसकी असंख्य बरूनियों में
समा गया होगा
उसकी बैंगनी कलछौंही पुतली में
उतर गया होगा उसकी धधकती सफ़ेदी में उसका तन
झनझना रही होगी उसके अजर-यौवन की ध्रुव रग
धरती के प्रताप से