भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूरज भी न जाने कहीं गिर गया / विम्मी सदारंगाणी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कल रात
कविताओं का काफ़िला
गुज़रा मेरे क़रीब से।

किसी ने मेरे चांद की चादर खींच ली।
कोई लिवाने आया था मुझे
पर तारों ने दरवाज़ा ही बंद कर दिया।
अपने दुपट्टे पर जड़े बाक़ी सितारे
मैंने लौटा दिये आसमान को।

मेरे बालों में अटका
सूरज भी न जाने कहीं गिर गया।

सिन्धी से अनुवाद : स्वयं कवयित्री द्वारा