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सूरज भी न जाने कहीं गिर गया / विम्मी सदारंगाणी
Kavita Kosh से
कल रात
कविताओं का काफ़िला
गुज़रा मेरे क़रीब से।
किसी ने मेरे चांद की चादर खींच ली।
कोई लिवाने आया था मुझे
पर तारों ने दरवाज़ा ही बंद कर दिया।
अपने दुपट्टे पर जड़े बाक़ी सितारे
मैंने लौटा दिये आसमान को।
मेरे बालों में अटका
सूरज भी न जाने कहीं गिर गया।
सिन्धी से अनुवाद : स्वयं कवयित्री द्वारा