सूरज रोज सवेरे लेकर सुखद रश्मियाँ आता है।
बन कर कोहरा चोर धरा की सारी धूप चुराता है॥
रात चाँद आ कर तारों को अपना रूप बाँट देता
सुबह ओस मुक्ताओं को आकर दिनकर ले जाता है॥
सच तो आखिर सच होता है एक कहे या लाखों लोग
सच्चाई के बल के आगे झूठ हार ही जाता है॥
कब तक छुपा गलतियाँ अपनी तुम यों आँख चुराओगे
झुठला कर हर घिरा अँधेरा सत्य सामने आता है॥
संसद में हो काम इसी हित है यह जनता धन देती
व्यर्थ बवाल करे जो ऐसे नेता का क्या जाता है॥
नित्य समन्दर की लहरें हैं तट पर शीश धुना करतीं
सिंधु बिचारा शीश पकड़ कर बस चुप ही रह जाता है॥
रात दिवस का चक्र हमेशा यों ही है चलता रहता
मानव मन अपनी ही उलझन उलझ-उलझ रह जाता है॥