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सूरज / इंदिरा शर्मा

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हर सुबह एक सूर्य प्राची आँगन में
और एक – मेरे मन मंदिर भीतर |
प्रकाशित कर अग – जग को
डूब जाता है पश्चिम छोर पर
 यह सांध्य सूरज |
कहीं दूर फैला विस्तृत अपार जल
जैसे पिघल गया लावा हो ,
बिखर गई हो ऊर्जा |
उमड़ उठते हों अमृत घन
आप्लावित जल –थल
जीती है सृष्टि
पीती हुई रस
इस जीवन का ,
सृष्टि इसी से तू आत्मसात करती है
होता है सृजन सृष्टि का |
मन मंदिर का सूर्य
देव सम्मुख – बन जाता है दीपक
आलोकित जिससे
अंतर – तन – मन
करता रहता सृजन
चेतन आत्म तत्व
गढ़ता रूप नित्य नूतन |
मेरा मन मंदिर –
ईश पूजन स्थल
जलता ऊर्ध्व दिशा
बन आत्म दीपक |