भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूरज / इरशाद अज़ीज़
Kavita Kosh से
रात सुपना बुणै
दिन हुवै कै
चाल पड़ै बो आपरै मारग
दूजां नै बांटतो उजाळो
आखी रात अंधारै मांय
गणमण करतौ रैवै
नीं ठाह कांई कैवै है
किणनैं कैवै है
बापड़ो सूरज
आपो-आपरी दुनिया मांय
भमतो रैवै।