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सूरज : चार चित्र / सांवर दइया

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एक
पूरब : सागर अथाह
सूरज खेने वाला
भगा आता है ले कर
दिन-नाव ।


दो
रात : जुल्मों की राजधानी
अंधेरा : गुंडा
अकेला सूरज
जूझता है, जीतता है
मनाता है जीत उत्सव
पूरब किले खड़ा हो
उडाता है - सिंदूरी गुलाल ।


तीन
पूरब में सिंदूरी उजाला
जैसे जवान होती लड़की के
चेहरे पर आती रौनक

सिंदूरी सूरज
जैसे अभी-अभी बनवाया हो
सोने का नया टीका
भोर लड़की जवान होगी तब
काम आएगा

वह सोचती है-
कुदरत मां ।


चार
पूरब-चौक
खेले भोर-लड़की
सूरज गेंद ।


अनुवाद : नीरज दइया