भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूरत छुपा कर चला है कहाँ तू / गोविन्द राकेश
Kavita Kosh से
सूरत छुपा कर चला है कहाँ तू
मुझसे दगा कर चला है कहाँ तू
मुश्किल नहीं कोई नज़रें मिलाना
नज़रें चुरा कर चला है कहाँ तू
तब तो कहा था कि कुछ भी करूँगा
बातें बना कर चला है कहाँ तू
ख़ामोश रहते मेरा साथ मिलता
सबको बता कर चला है कहाँ तू
चुपके किसी से मिला लीं नज़रें
दिल को जला कर चला है कहाँ तू