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सूरीनाम संस्कृति भजन वल्लरी / लक्ष्मीप्रसाद बलदेव

चैतन्यं सर्व भूतानां विवृत्त जगदात्मनाम्।
नाद ब्रह्मा तदानंद मव्दीतीय मुसास्महै॥

सकल जगत् के रक्षक हे प्रभो।
होय प्रसन्न वर देव।
सुरिनाम संस्कृति भजन लिखत मैं,
कृपा करो देवों के देव।
यह औसर निष्कपट हो,
सत्य की बजे अब नाद।
हैं अति दीन मलीन जन,
विनय करत ‘लक्ष्मीप्रसाद’।
ओउम् शान्ति! शान्ति!! शान्ति!!!

भजन

पहले पुरुषाओं का कैसा था रीत अब कैसी होती हाय!
ध्यान देकर सुनना चाहिए, कहूँगा भजन में समझाय॥
मनुस्मृति आदि ग्रन्थ में ऐसा लिखा है।
जातीय इतिहास में अब वही वाक्य पढ़ा गया है।टेक।
करो क्या घाट जी, हम उन पहिले पुरुषाओं से
उन पहिले पुरुषाओं करते रहे धर्म से नहीं किनारा
इतिहास का लेख देखो कहना नहीं कुछ हमारा
पहले पुरुषाओं सत्य असत्य का करते रहे विचार
क्या घाट जी, हम उन पहिले पुरुषाओं से
हम अब सत्य असत्य एक ना माने मन वांछित करें बहार
पहिले पुरुषाओं में पंडित सन्ध्या हवन ज्ञान साधन की थी रीत
अब के पंडित चोरी हिंसा व्यभिचार में जीवन करें व्यतीत
कहो पहले के पंडित त्याग सन्ध्या हवन शूद्रवत हो जाते
अब के पंडित त्याग सत्य क्रिया हिंसा से नहीं डराते
क्या घाट जी, हम उन पहिले पुरुषाओं से

पहिले पुरुषाओं भक्त शिरोमणी का करते रहे मान,
हम अब वेश्या भाड़ों का करते हैं
क्या घाट जी, हम उन पहिले पुरुषाओं से
सम्मान पहिले पुरुषाओं सब जीवों से करते रहे सत्य व्यवहार,
हम अब निर्बलों के गर्दन पर छुरी की धार।

गजल

जिया पछितात है रे, मित्रों देख दशा अपनी जाति की,
विस्की की चुस्की की खुस्की मिटाने की मुँह में दबाई सिगार।
बाइसिकल सजा कर के टन टन बजा कर पहुँचे बजार,
चार बजे टिकट ले शाम का पहुँचे किनो के दरबार।

गजब इन का चाल है रे,
जिया पछितात है रे, मित्रों देख दशा अपनी जाति की,
उसी की शिक्षा ले अपनी मातबहिन चले,
चाल बेचाल, नकल देख औरों का, डाले अपनी हिन्दी मर्याद बिगाड़।

बिगड़ गई चाल है रे,
जिया पछितात है रे, मित्रों देख दशा अपनी जाति की,
खोटे कर्म किए जैसे तैसे फल लीनी पाई।
हिन्दी मर्याद को त्याग हेय सब पड़े कुमार्ग जाई,
ये मन सकुचात है रे,
जिया पछितात है रे, मित्रों देख दशा अपनी जाति की,
लक्ष्मीप्रसाद क्या कहै मित्रवर बहै नैन जल धार,
आज सुरिनाम देश में भारती की नैया पड़ी बीच मँझधार
हा डूबी जात है रे,
जिया पछितात है रे, मित्रों देख दशा अपनी जाति की।

भजन

सुरीनाम देश में रे, अब तो ऐसा चाल चले॥
तजी सकल, हिन्दी मर्याद पुरानी नवीन कौतुक धारे।
तोड़ ईश्वरीय नियम हाय अधर्म को करत प्रचारे।
सुरीनाम देश में रे, अब तो ऐसा चाल चले॥
वेद पुराण का कहा ना माने करते हैं मन मानी
जाति सेवा करना रहा अलहदा, भूल गए अपनी बानी।
सुरीनाम देश में रे, अब तो ऐसा चाल चले॥
सतसंगति से करें किनारा गैरों का संगत चित धारे।
निज नारी को छोड़ अधर्मी, रण्डी से सिर मारे
सुरीनाम देश में रे, अब तो ऐसा चाल चले॥
अपनी जाति से करें नफरत नहीं प्रेम आपस में।
भाई की जड़ काटे भाई, तर्स न लावे दिल में
सूरीनाम देश में रे, अब तो ऐसा चाल चले॥
शिखा जनेव का हाल न जाने, हब्शी बाल लेत रखाय।
अब हिन्दी मर्याद बिगड़न पर ऐसा देत लखाय
सुरीनाम देश में रे, अब तो ऐसा चाल चले॥
यही देश में ढंग हमें प्रत्यक्ष दिखते भाई,
वह ही प्रियवर अल्प बुद्धि से सब को दिया सुनाई।
सुरीनाम देश में रे, अब तो ऐसा चाल चले॥
याद करें जब इन को धड़कती छाती हाय
लक्ष्मीप्रसाद जो कुछ देखा कहे भाव भजन में समझाय
सुरीनाम देश में रे, अब तो ऐसा चाल चले॥

लावनी

हाय सुरिनाम देश में जन्मी ऐसी नारी,
हिन्दी मर्याद बिगाड़ कर चलने लगी बदकारी।
अपने पति को छोड़ कर अन्य पुरुष का सेवा करे
सण्डे मुसण्डे लुच्चे गुण्डे की जाके पैरों परे।
टेक-देख-देख गैरों की चाल यह भारती नारी
गई भ्रम में भूल हिन्दी मर्याद सारी॥

प्यारी बहिनो कया है यह दशा तुम्हारी।
कर नकल गैरों का हिन्दी मर्याद बिगाड़ी
अपने कुटुम्बियों में रहती हो पर्दादारी
पर हाट बाट में तुम फिरती हो मुँह उघारी।
यह स्वांग तमाशे में हो जाय व्यभिचारी
गई भ्रम में भूल हिन्दी मर्याद सारी

कहाँ गई द्रोपदी सीतादि सम नारी,
जो महा क्लेशों के बीच धर्म नहीं हारीं
जिनके अब जाय सभा में नाम पुकारी,
करो उन के ग्रहण गुण सुधरे बुद्धि तुम्हारी।
करें ख्याल नवल सिंह वेद धर्म प्रचारी,
गई भ्रम में भूल हिन्दी मर्याद सारी॥

कहें लक्ष्मीप्रसाद सुनो बहनो यही शिक्षा हमारी,
चलती हो गैरों का चाल, यह लाज भारत की भारी
गैरों के संग जाकर अपना धर्म बिगाड़ी
मन वाक्य देखो देवी नाम है तुम्हारी।
रही तुम्हें भला बुरा को कुच्छ नहीं बिचारी,
गई भ्रम में भूल हिन्दी मर्याद सारी॥

वार्ता

सीय लषण जन सहित सुहाए,
अति रुचि राम मूल फल खाए।
भये विगत सम राम सुखारे,
भरद्वाज मृदु बचन उचारे।

सीताजी लक्ष्मणजी और निषाद के साथ राम जी ने
प्रेम से सुन्दर फूलों और फलों का खाया था,
थकावट दूर हो गई और राम जी सुखी हुए,
तब भारद्वाज मुनि ने कोमल बाणी से कहा।

भजन

जगाय रहे हैं जान कौन नींद सोए।
कोई चोर जार पापी कोई करता रण्डीबाजी
कोई सिगरेट का धुआँ उड़ाए रहे
जगाय रहे हैं जान कौन नींद सोए।
कोई कीनो होटेल जाई करता सुलफेबाजी
बुरे कर्म का बुरा फल मिलेगा चाहे पंडित य काजी
जगाय रहे हैं जान कौन नींद सोए।
चंगे में इत उत घावें निश दिन पापी पाप कवामें
हो पीड़ित जब हर गुण गावें
यह पूरा मक्कार है, जाने कौन नींद सोए
सुनो सकल सुरीनाम बासी!
यह कहता ‘लक्ष्मीप्रसाद’ प्रोफिदेन्स निवासी
यह सब उल्टा चाल है
जगाय रहे हैं जान कौन नींद सोए।

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भजन

अब तो छोड़ दो रे मित्रों ऐंठ गुमान को
चीन मुसल्माँ ताड़ी को बेचते देते पानी मिलाय
खड़े-खड़े पंड़ित जी पीते जरा शर्म नहीं आय
कायस्थ ब्राह्मण कहलाते हिन्दू कहे पुकारा
चीन हाट का उचिष्ट पानी पीते नहीं बिचारा
हिन्दू के सभा उत्सव में पंड़ित पहुँचे जाय
कदम-कदम पर राड़ मचावें जरा शर्म नहीं आय
शराब ताड़ी माँस उड़ावो हो गए बुद्धिहीन
इसी सबब से धर्म तुम्हारा हो रहा तीन तेरह तीन
होटल का पानी बासा में भोजन खावें जाय
पर हिन्दुवों का साथ में तुरन्त बिगड़ दामन जाय
ऐ! अघ के करने वालों डरो जरा ईश्वर से
विद्या पढ़ो धर्म गहो मुँह मोड़ो लड़ने से
अब तो होश में आवो धन और धर्म बचावो
धर्म कहाँ लड़ने में मिलता हम को भी समझावो
भूलों का अब राह बताना यही काम है मेरा
वरन् अख्त्यार तुम्हीं को करो नरक में डेरा
‘लक्ष्मीप्रसाद’ सायुज्य का रीत बतलावें मानो सीख मेरा
छूत छात का भूत भगावो चन्द्ररोज का डेरा।