राग अमर अम्बर का अनहद, नव लय-गति के धारक
राघव-सा ही डटा रहा, जब शक्ति रही विपरीत
मुक्त छन्द में गूँजा था तब वाणी का संगीत
सूरज-सा ही रहा दीपता मध्य निशा का तारक ।
गिरि था, सब अन्धड़-बतास को सर पर लिए चला था
पुच्छल को पीछे ही रख कर, तुलसी को कर आगे
जैसे कोई निपट निशा में इस्थिर औघड़ जागे
मन था जूही का लेकिन पत्थर के बीच पला था ।
एक हाथ में कलश सुरभि का, एक हाथ में ज्वाला
हिन्दी ने देखा था पहली बार रूप यह ऐसा
नहीं दिखा सचमुच में फिर से, देखा सबने जैसा
विष को पी कर छोड़ गया है जो अमृत का प्याला ।
सूर्यकान्त ही कहें उसे क्यों, काव्यकान्त भी वह था
एक साथ वरदाई-भूषण, उस पर और सरह था ।