सूर्यतामसी / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
कहीं से चिड़ियों की आवाजें सुनता हूँ
किसी दिशा से समुद्र का स्वर,
कहीं भोर रह गई है-तब भी
अगगन मनुष्य की मृत्यु होने पर-अंधकार में जीवित और मृत का हृदय
विस्मृति की तरह देख रहा है।
मरण का या जीवन का?
कैसी सुबह है यह?
अनन्त रात की तरह लगता है।
एक रात भयंकर पीड़ा सह
समय क्या अन्त में ऐसे ही भोर का आता है
अगली रात के काल पुरुष की छाती से जाग उठता है?
कहीं डैने का शब्द सुनता हूँ
किसी दिशा से समुद्र का स्वर
दक्षिण की ओर
उत्तर की ओर
पश्चिम के प्राण से
माने सृजन की ही भयावहता
तब भी बसन्त के जीवन की तरह, कल्याण से
सूर्यालोकित सारे सिन्धु-पक्षियों के शब्द सुनता हूँ
भोर के बदले तब भी वहाँ रात्रि का उजाला
वियेना, टोकियो, रोम, म्युनिख-तुम?
बहो-बहो, उस ओर नीले में
सागर के बदले, अटलान्टिक चार्टर निखिल मरुभूमि पर।
विलीन नहीं होता मायामृग-नित्य दिक्दर्शित
अनुभव पर मनुष्य का क्लान्त इतिहास
जो जाने हैं, सीखें नहीं जो
उसी महाश्मशान की गर्म कोख में धूप की तरह जलकर
गिद्ध के करुण क्रंदन के कोलाहल में
जागता है क्या जीवन-हे सागर।