भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुज़रते हुए / केदारनाथ सिंह
Kavita Kosh से
भर लो
दूध की धार की
धीमी-धीमी चोटें
दिये की लौ की पहली कँपकँपी
आत्मा में भर लो
भर लो
एक झुकी हुई बूढ़ी
निग़ाह के सामने
मानस की पहली चौपाई का खुलना
और अन्तिम दोहे का
सुलगना भर लो
भर लो
ताकती हुई आँखों का
अथाह सन्नाटा
सिवानों पर स्यारों के
फेंकरने की आवाज़ें
बिच्छुओं के
उठे हुए डंकों की
सारी बेचैनी
आत्मा में भर लो
और कवि जी सुनो
इससे पहले कि भूख का हाँका पड़े
और अँधेरा तुम्हें चींथ डाले
भर लो
इस पूरे ब्रह्माण्ड को
एक छोटी-सी साँस की
डिबिया में भर लो