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सूर्यास्त / अज्ञेय

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अन्तिम रवि की अन्तिम रक्तिम किरण छू चुकी हिमगिरि-भाल,
अन्तिम रक्त रश्मि के नर्तन को दे चुके चीड़-तरु ताल ।
नीलिम शिला-खंड के पीछे दीप्त अरुण की अन्तिम ज्वाल—
          जग को दे अन्तिम आश्वासन अस्ताचल की ओट हुए रवि !

खोल हृदय-पट तू दिखला दे अपना उल्लस प्राणोन्माद,
शब्द-शब्द की कम्पन-कम्पन में भर दे अतुलित आह्लाद,
अक्षर-अक्षर हों समर्थ बिखराने को जीवन-अवसाद—
         फिर भी वर्णित हुई न होगी इस की एक किरण भर छवि !

स्वयं उसी भैरव सौन्दर्य-नदी में बह जा !
नीरवता द्वारा अपनी असफलता कह जा !
निरुद्वेग, मीठे विषाद में चुप ही रह जा
          इस रहस्य अपरिम के आगे आदर से नतमस्तक, रे कवि !

डलहौजी, 3 जून, 1934