सूर्योदय / शरण कुमार लिंबाले
मैं नहीं माँग रहा हू~म तुम्हारे आकाश के सूर्य-चन्द्र
खेतीबाड़ी, हवेली आदि
मैं नहीं माँग रहा हूँ ईश्वर, धर्म, जाति, पंथ अथवा
तुम्हारी माँ, बहन, बेटा-बेटी ।
मैं माँग रहा हूँ, मेरे हक़, एक इन्सान के रूप में ।
मेरे उच्छवास से थर-थर काँपते हैं तुम्हारे शास्त्र-पुराण
और स्वर्ग-नरक भी !
छूआछूत होगी इसलिए
लपलपाते हैं हमारे हाथ ध्वस्त करने हेतु हमारी बस्तियाँ
तुम मारोगे मुझे, टुकड़े कर दोगे मेरे,
जला दोगे, लूटोगे मेरी बस्ती को,
परन्तु दोस्तो !
पूर्व दिशा में बोकर रखे सूर्य की तरह के
इन शब्दों को कैसे ध्वस्त करोगे ?
मेरा हक़ : एक छूत जन्य जातिगत दंगा-फ़साद
फैलते जा रहे शहर, देहात-दर-देहात, इंसान-इंसान
मेरा हक़ ही ऐसा,
हर जगह जिलाबंदी, नाका बंदी, बहिष्कृत,
मुझे मेरे हक़ चाहिए । मुझे मेरे हक़ दीजिए ।
नकार रहे हो क्या इस विस्फ़ोटक अवस्था को ?
मैं उखाड़ता जाऊँगा रेल-लाईन की तरह धर्मग्रंथ
आग लगा दूँगा सिटीबस की तरह तुम्हारे अँधाधुँध अधिकारों को,
दोस्तो !
मेरे हक़ सूर्य की तरह उदय हो रहे हैं
मेरे सूर्योदय को क्या तुम नकारोगे ?
मूल मराठी से सूर्यनारायण रणसुभे द्वारा अनूदित