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सूर्य ग्रहण / निवेदिता चक्रवर्ती
Kavita Kosh से
पृथ्वी!! देखो आज मैं तुम से अवगुंठन कर रहा हूँ।।
धरती पर बिछी धूप को रोज़ मैं नमन करता हूँ
काले स्याह अंधकार का रोज मैं दमन करता हूँ
आज स्वयं को लुका तम का अभिनंदन कर रहा हूँ।।
कुछ क्षण मैं तुम्हारा आचमन न ले पाऊँगा
कुछ क्षण किरणों का आवरण न दे पाऊँगा
क्षण भर चंद्रमा का आज आलिंगन कर रहा हूँ।।
तुम्हारी निद्रा भंग होते ही द्वार पर तुम्हें मिलता हूँ
तुम्हें देख उल्लसित, रक्तिम-रक्तिम खिलता हूँ
चलो, क्षणिक विछोह का आस्वादन कर रहा हूँ।।
अपनी आभा-मंडल में मदमस्त झूमा हूँ मैं
अपने प्रकाश-वैभव को बार-बार चूमा हूँ मैं
किंचित-सा ढँक स्वयं को, अकिंचन कर रहा हूँ।।
पृथ्वी!! देखो आज मैं तुमसे अवगुंठन कर रहा हूँ।।