भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूर्य तुम इतने क्यों मगरूर हो /रमा द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


सूर्य तुम इतने क्यों मगरूर हो,
जल रहे हो प्रणय की आग में,पर
कर न सके इज़हार तुम
इतने क्यों मजबूर हो?.....सूर्य तुम।
युग-युगों से दे रहे फेरा,
मेरी ही परिधि में तुम,
मैं प्रतीक्षारत खड़ी हूं,
मिल न सके फिर भी कभी तुम,
देखती आशाभरी नजरों से पर,
तुम कितने दूर हो...सूर्य तुम।
मन तेरा चंचल बहुत है,
इक जगह टिकता नहीं,
दिन में दिखते हो यहां,
पर रात्रि में डेरा कहीं,
सोमरस का है नशा क्या?
इतने क्यों सुरूर हो...सूर्य तुम।
देश हो या विदेश हो,
तेरे चाहने वाले बहुत,
धूप हो या छांव हो,
विस्तार तेरा है बहुत,
प्राण भरते हो प्रकृति में,
कमलिनी के नूर हो....सूर्य तुम।
कौन है वो रात्रि में जो,
लेती है तुझको चुरा ,
हूं भ्रमित तेरे आचरण से,
इस राज से पर्दा उठा,
राज अब बतला भी दो,
क्यों इतने तुम मशहूर हो?...सूर्य तुम।
सदियों से प्यासी हूं मैं,
प्यास अब मेरी बुझा,
ढूढ़ते क्या फिर रहे,
यह बात तो मुझको बता?
मिल न सके प्रिय से कभी,
क्यों इतने मद में चूर हो...सूर्य तुम।