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सूर्य / एकराम अली
Kavita Kosh से
धारीदार हवा-जैसी थी सीढ़ियाँ
टूटा-फूटा लेटर बॉक्स
झाड़ू की खिर गई सींकें
सोए पड़े हैं श्वान-शिशु
यक्षिणी की तरह
दबे पाँव घूम रही थी रंगीन बिल्ली
जाने कहाँ-कहाँ?
अब सिर पर
सिर से भी बड़ी नीली छत है
दिन के अन्त में उजाले के पक्षी
झुण्ड के झुण्ड घुसे जा रहे हैं
सूर्य के भीतर
बेचैनी और शोर से भरे
उस शिशु का सारा उजाला
जमकर अब चटक लाल हो उठा है
पश्चिम की यवनिका गिरने-गिरने को है
और थोड़ी देर बाद
वे सब सो जाएँगे
पर कहाँ सोएँगे?
क्या आसमान के इस अधेड़
नग्न पुरुष की देह के भीतर?
मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी