भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूषिम जनम कौ अंग / साखी / कबीर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कबीर सूषिम सुरति का, जीव न जाँणै जाल।
कहै कबीरा दूरि करि, आतम अदिष्टि काल॥1॥

प्राण पंड को तजि चलै, मूवा कहै सब कोइ।
जीव छताँ जांमैं मरै, सूषिम लखै न कोइ॥2॥304॥
टिप्पणी: ख-में इसके आगे ये दोहे हैं-

कबीर अंतहकरन मन, करन मनोरथ माँहि।
उपजित उतपति जाँणिए, बिनसे जब बिसराँहि॥3॥

कबीर संसा दूरि करि, जाँमण मरन भरम।
पंच तत्त तत्तहि मिलै, सुनि समाना मन॥4॥