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सृजन क्षण / उद्भ्रान्त
Kavita Kosh से
सूर्य ने पुकारा
कल मेरी आकृति को सूर्य ने पुकारा
उजली उजली किरणें
चेहरे से फूटीं
स्वर के बन्दीगृह की
दीवारें टूटीं
शब्द ने पुकारा
कल मेरी संस्कृति को शब्द ने पुकारा
एक और ’मैं’ मेरे
भीतर से उभरा
’मेरापन’ जीवन के
हर पल पर बिखरा
बिम्ब ने पुकारा
कल मेरी प्रतिकृति को बिम्ब ने पुकारा
धड़कन में रागों की
मदिर सृष्टि डोली
सांस-सांस में, सरगम
की माया बोली
छन्द ने पुकारा
कल मेरी झंकृति को छन्द ने पुकारा