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सृज़न / सरस्वती माथुर
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एक छोटी सी कोशिश
मेरे सपनो की डायरी में
मंदिर की
घंटियों सी बजती रही
पखारती चली गयी
अपने हिस्से के
स्मृति कण
जो कुछ पल
अठखेलियां करते
मेरे आसपास दर्ज हो
पल्लवित्-पुष्पित होते रहे
और मैं सृजन करती रही
उन पलों से झरते अहसासों का
जो कैदी पंछी के
व्याकुल मौन सा
मेरे भीतर छिपा था
उन पलों के अहसासों का
वह अनवरत सुर
मेरे अंतर्मन को
स्पर्श करता चला गया
और मैंने पहली बार देखा
अपनी छोटी कोशिश को
बड़ी कोशिश में बदलते हुए
और सृजन की कोख से
सपनो को झरते हुए
खुले आकाश में
उन्मुक्त हुये
पक्षी सा उड़ते हुवे देखा और
मैं खुश थी की
मेरे सपने कठपुतली नहीं थे