सृष्टि के तट पर / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
साँझ में से रोशनी क्रम से निस्तेज होकर बुझ गयी-
फिर भी बहुत-सा स्मरणीय काम हो चुका है:
हरिण खा चुके अपने आमिष शिकारी का हृदय फाड़,
सम्राट के इशारे पर कंकाल की पसलियाँ सैनिक हो गईं
फिर कंकाल सचल हो उठा,
विलोचन गया था विवाह रचाने
और रसिकों ने बिताया सारा समय गणिका के कोठे पर
सभाकवि दे गये पटु वाक्यों में गाली।
समस्त आच्छन स्वर ओंकार करते हुए विस्मृति की ओर उड़ गये।
यह शाम मनुष्य और मक्खियों से गुंजायमान
युग-युग से मनुष्य का अध्यवसाय
दूसरों को सुविधा-सी लगती है।
क्विस लिंग ने अपना नाम ऊँचा क्या किया-हिटलर सात कानी कौड़ी दे
उसे ख़रीद बन गया जनरल
फिर मनुष्य के हाथों मनुष्य की नोची गयी ख़ाल
दुनिया में बिना शोषण कोई नौकरी नहीं।
यह कैसा परिवेश बन गया है-
जबसे वाक्पटु ने जन्म लिया है।
जबकि सामान्य जन धीरे-धीरे मन्थर गति से जाना चाहते थे स्वाभाविक पथ पर,
तब कैसे और क्योंकर वे परिहास करते-करते पाताल में फिसल गये-
हृदय के जन परिजनों को लेकर।
या फिर जो लोग अपनी प्रसिद्धि को प्यार कर
द्वार पर चूल्हा न पकाकर जान नहीं पाये कोई लीला
या फिर जो नाम अच्छा लगा था आपिला-चापिला
रोटी की चाह में ब्रेड बास्केट खायी उन्होंने अन्त में।
ये सभी अपनी-अपनी गणिका, दलाल, जमाख़ोर और दुश्मन की तलाश में
इधर-उधर की सोचकर सनिर्बन्धता में उतर गये,
यदि कहा जाय, वे लोग तुमसे सुखी हैं,
ग़लत आदमी के साथ तब उस अन्धविश्वास के चलते
बात की तो, दो हाथ सत्य को गुमटाये
भर उठे किसी उचाटपन से।
कुत्ते के क्रन्दन जैसा:
पोंछे का चीथड़ा अचानक नाली में घिसने पर जैसी करता है आवाज़।
घर के भीतर कोई लाई भूँज रहा है तो दरवाजे़ पर लगा जंग
रद्द नहीं होता अपनी क्षय के व्यवसाय से,
चाहे आगे-पीछे घर ही बैठ जाय।
गन्धी कीड़े की बदबू नरक की सराय की चाय से
धीरे-धीरे बहुत फ़ीका हो आता है
तरह-तरह ज्यामितिक खिंचाव के अन्दर
स्वर्ग-मृत्यु पाताल के कुहासे की तरह मिलकर
एक गंभीर छाया जाग उठती है मन में।
या कि वह छाया नहीं-जीव नहीं, सृष्टि की दीवार के पार
सिर से पाँव तक-मैं उसी की ओर देख रहा हूँ,
वानगॉग की पेंटिंग की तरह-पर गॉग जैसे कुशल हाथ से
निकलकर वह नाक से आँख में शायद खिले हैं कई-कई बार
बुझता-खिल उठता, छाया, राख, दिव्य योनि-सा लगता है।
स्वातितारा, शुक्रतारा, सूर्य का स्कूल खोलता है
वही मनुष्य नरक या मृत्यु में तब्दील हो जाता है-
वृष, मेष, वृश्चिक, सिंह का प्रातःकाल
चाहने जाता है कन्या, मीन, मिथुन के कुल में।