सृष्टि लीला के प्रांगण में खड़ा हुआ / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
सृष्टि लीला के प्रांगण में खड़ा हुआ
देखता हूं क्षण-क्षण में
तमस के उस पार
जहाँ महा अव्यक्त के असीम चैतन्य में लीन था मैं।
आज इस प्रभात में ऋषि वाक्य जाग रहा मन में।
करो करो अपावृत, हे सूर्य, आलोक आवरण,
तुम्हारी अन्तरतम परम ज्योति में
देखता हूं निज आत्मा का स्वरूप मैं।
जो ‘मैं’ दिन शेष में वायु में विलीन करता है प्राणवायु,
भस्म में जिसकी देह का अन्ता होगा,
यात्रा पथ में वह अपनी छाया न डाले कहीं
धारण कर सत्य का छद्यावेश।
इस मर्त्य के लीला क्षेत्र में
सुख दुःख में अमृत का स्वाद भी तो
पाया है क्षण-क्षण में,
बार-बार असीम को देखा है
सीमा के अन्तराल में।
समझा है, इस जन्म का शेष अर्थ वही था,
उसी सुन्दर रूप में,
संगीत में अनिर्वचनीय जो।
खेलघर का आज जब खुलेगा द्वार
धरणी के देवालय में रख जाऊंगा अपना नमस्कार,
दे जाऊंगा जीवन का सम्पूर्ण नैवेद्य मैं,
मूल्य जिसका मृत्यु के अतीत हैं।
‘उदयन’
प्रभात: 11 माघ 1997