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सेंध / आशुतोष दुबे
Kavita Kosh से
मन में सेंध लगाने में
जान से ज़्यादा का ख़तरा है
पढ़ने के बाद
बन्द करके नहीं रखी जा सकती
किसी और की डायरी
हमेशा फड़फड़ाते रहेंगे
अन्धेरे में कुछ सफ़े
डसेंगे अक्षर वे
साँपों की तरह लहराते-चमकते हुए
प्यास से सूखेगा कण्ठ
पसीना छलछला आएगा माथे पर
रह जाएगा जीवन
पँक्तियों के पहाड़ के उस तरफ़
और लौटना होगा असम्भव
आख़िरी वक़्त होगा यह
जो बहुत लम्बा चलेगा
आखिरी साँस तक
यह वह नहीं
उसकी लिखत है
माफ़ नहीं करेगी यह