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सेतु भी थे / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
अर्चना की धार ठहरी
सामने चलती नदी के।
नदी, जिसकी सतह पर
सूरज उगा है
एक अँजुरी पर समूचे सिन्धु-सा
माथा झुका है
तैरते थामे लहर के हाथ
जलते दीप घी के।
मंत्र अस्फुट अधर को
संगीत जैसे धो गया है
मुक्ति-बंधन-सा नहाया रूप
कविता हो गया है
वन्दना के शब्द-से
बहते हुए दो फूल दीखे।
धूप, पूजा-सी सुबह की
सीढ़ियाँ चढ़ने लगी है
बन्द पलकों से खुले मन तक
प्रवाहित जो नदी है
आज हैं आवर्त उसमें
कल उसी पर सेतु भी थे।