'सेनापति ऊँचे दिनकर के चलत लुवैं,
नदी नद कुवें कोपि डारत सुखाइ कै।
चलत पवन, मुरझात उपवन वन,
लाग्यो है तपन जारयो भूतलों तचाइ कै॥
भीषण तपत, रितु ग्रीष्म सकुच ताते,
सीरक छिपत तहखाननि में जाइकै।
मानौ सीतकाल सीतलता के जमाइबे को,
राखे हैं बिरंचि बीज धरा में धराइ कै॥