सेफ्टीरेजर का इश्तिहार / मनोज कुमार झा
ताकतवर दिखता है इश्तिहार का मर्द महँगे
सेफ्टीरेजर से शेव करते हुए ।
ताकतवर के सम्मान में और सौंपने ताकत को पूर्णता आवश्यक थी
इश्तिहार में एक लड़की जो खूबसूरत हो
देह की माप-जोख के ग्लोबल पैमाने के मुताबिक।
फूस की छत और पुराने अधटूटे आइने वाले सैलून में लड़के ने
चिपकाया है फोटो
बूढ़ा नाई आग हो रहा यह इश्तिहार देखकर
लड़का समझाता है - सेफ्टीरेजर नहीं लड़की देखिए उस्ताद।
इस इश्तिहार में यह लड़की बस एक लड़की नहीं है
बल्कि एक पतंग है जो खिंची चली आती है शक्ति-दीपों की तरफ
जैसे कि रेजर नहीं है सिर्फ दाढ़ी बनाने का औजार
अपितु एक बिजूका है
लोभ और शक्ति की कतरनों से निर्मित
अगोरता घर-बाहर के धनसियारों के हितों की फसल।
घर, बाजार, समाज, यथार्थ, माया और सपनों के बीच सक्रिय
एक सूक्ष्म खेल ने ढकेला है इस इश्तिहार में लड़की को
जो इससे पूर्व यथार्थ से करती थी सरगोशियाँ
और सपनों को रखती थी सैंत-सैंतकर
जिनसे कभी-कभार आ टकराते थे राजकुमार के घोड़े।
लड़की विज्ञापन में रहती है या इस दुनिया में
या उस तहखाने में जो बना लेता है हर कोई
आत्मा की जरूरतों के अनुकूल।
लड़की से पूछना था जब स्नान हो किसी और के लिए तो कैसा लगता है
जल का स्पर्श
नदी में डुबकी लगाकर लौटती स्त्री ने बताया था कभी
- किसी के लिए भी हो नहान, उसमें रहता ही है अपना भी हिस्सा।
इसकी मुस्कान अब पूरे चेहरे से नहीं उठती।
किसी के आदेश से खुलती है और घुल जाती है
विज्ञापन की कथा में।
सुंदरता क्यों बन जाती है अखबार का टुकड़ा!
बनावटी सुंदरताओं की कॉरपोरेटी बुनावट
की एक क्षुद्र तंतु भर यह लड़की
जरूरी है कुछ पल के लिए झाग की तरह
फिर दूसरी लड़की आएगी और मुसकराते खिसक जाएगी यह लड़की
नई भूमिका निभाने जो तय की होगी जमाने की शक्तियों ने।